हिंदी व्याकरण
व्याकरण द्वारा भाषा के शुद्ध तथा अशुद्ध रूप का ज्ञान होता है तथा इसके प्रयोग के नियमों का भी ज्ञात होता है।व्याकरण के चार मुख्य भाग है:
(1) वर्ण व्यवस्था
(2) शब्द व्यवस्था
(3) पद व्यवस्था
(4) वाक्य व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था
ध्वनि (स्वन) :
ध्वनियाँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। कुछ ध्वनियाँ निरर्थक होती हैं- जैसे- मेज थपथपाना, गाड़ी का चलना, तथा कुछ ध्वनियाँ सार्थक होती हैं, जो भाषा विशेष में शब्दों आदि के निर्माण में सहायक होती हैं। ऐसी ध्वनियों को स्वन कहते हैं। अर्थात् स्वन में भाषा विशेष में प्रयोग होने वाली ध्वनियाँ शामिल होती हैं।
इस प्रकार, भाषा विशेष में प्रयुक्त ध्वनि, 'स्वन' कहलाती है।
स्वनिम (ध्वनिग्राम/स्वनग्राम) और उपस्वन (संध्वनि):-
हम चार शब्दों 'उलटा', 'लो', 'ले' तथा 'ली' का सावधानी से उच्चारण करें और जीभ की स्पर्श-स्थिति पर ध्यान दें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि 'ल' ध्वनि के इन चार शब्दों में चार प्रतिनिधि हैं और चारों के उच्चारण-स्थान एक-दूसरे से कुछ-कुछ भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में 'ल' तो एक सामान्य ध्वनि है जिसके वास्तविक रूप में प्रयुक्त रूप प्रयुक्त रूप चार हैं। ये प्रयुक्त रूप और भी अधिक हो सकते हैं, यदि हम और अधिक शब्द लें तो। ये सामान्य ध्वनि स्वनिम है और इसके प्रयुक्त रूप इसके उपस्वन है।
समाज के सारे सदस्यों को एक ही स्वन का उच्चारण असंख्य बार करना पड़ता है। ये वास्तव में असंख्य स्वन होते हैं, फिर भी हम इन्हें एक हो स्वन के रूप में ग्रहण करते हैं। क्योंकि उनमें उच्चारण स्थान और प्रयत्न का साम्य होता है।
इस प्रकार, जिस स्वन के उच्चारण और श्रवण से अभ्यस्त होकर उस स्वन का भावानीत स्वरूप हमारे मस्तिष्क में रहता है, उसे स्वनिम कहा जाता है।
निष्कर्ष रूप में, हम कह सकते हैं कि स्वनिम की सत्ता मानसिक होती है (अर्थात स्वनिम, अपने उपस्वनों का प्रतिक होता है जिसका प्रयोग लेखन में होता है।) तथा उपस्वन की सत्ता भौतिक होती है (अर्थात् उपस्वन, स्वनिम का प्रयोगात्मक स्तर है।)
एक अन्य गुण के अनुसार, जो ध्वनियाँ या स्वन एक दूसरे के व्यतिरेकी या विरोधी होता है, उन्हें स्वनिम कहते हैं।
यथा - 'वाली' और 'लाली' में स्पष्ट है कि 'न' और 'ल' भिन्न-भिन्न स्वनिम है। इस प्रकार स्वनिम में अर्थभेदक क्षमता होती है।
स्वनिम ध्वनि-प्रतीक होते हैं जिनका प्रयोन लेखन में होता है। लेखन में ये 'वर्ण' कहलाते हैं।
भाषा की सभी ध्वनियों का उच्चारण स्थान भिन्न-भिन्न होता है। इसके लिए वाग्यंत्र का अध्ययन जरूरी है।
