रेखाचित्र

 

रेखाचित्र के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत

जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल- “गद्य का वह रूप, जिसमें भाषा के द्वारा किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना का चित्रण या मानसिक प्रत्यक्षीकरण किया जाता है, रेखाचित्र कहलाता है।”

शशिभूषण सिंघल- “रेखाचित्र शब्दों के द्वारा निर्मित सांकेतिक चित्र हैं। उसमें प्रस्तुत व्यक्ति की झलक प्रस्तुत की जाती है। लेखक ने उसके विषय में जो धारणा बनाई है, उस धारणा का क्रमशः विस्तार रहता है। उसका यथासाध्य वस्तुपरक चित्रण करते हुए लेखक स्वत: गौण हो जाता है।”

बनारसीदास चतुर्वेदी- ‘‘जिस प्रकार एक अच्छा चित्र खींचने के लिए कैमरे का लैंस बढ़िया होना चाहिए और फिल्म भी काफी कोमल या सैंसिटिव, उसी प्रकार साफ चित्रण के लिए रेखाचित्रकार में विश्लेषणात्मक बुद्ध तथा भावुकतापूर्ण हृदय दोनों का सामंजस्य होना चाहिए परदुःखकातरता, संवेदनशीलता, विवेक और संतुलन इन सब गुणों की आवश्यकता है।’’

बनारसी दास चतुर्वेदी- “यदि हमसे प्रश्न किया जाये कि आज तक का हिंदी का श्रेष्ठ रेखा चित्रकार कौन है तो हम बिना किसी संकोच के बेनीपुरीजी का नाम उपस्थित कर देंगे।”

महादेवी वर्मा- “चित्रकार अपने सामने रखी वस्तु या व्यक्ति या रंगहीन चित्र जब कुछ रेखाओं में इस प्रकार आंक देता है कि उसकी विशेष मुद्रा पहचानी जा सके तब उसे हम रेखाचित्र की संज्ञा देते हैं। संस्मरण में भी साहित्यकार कुछ शब्दों में ऐसा चित्र अंकित कर देता है जो उस व्यक्ति या वस्तु का परिचय दे सके, परंतु दोनों में अंतर है।”

मैथिलीशरण गुप्त- ‘‘लोग माटी की मूरतें बनाकर सोने के भाव बेचते हैं पर बेनीपुरी सोने की मूरतें बनाकर माटी के मोल बेच रहे हैं।’’

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित महादेवी के रेखाचित्र संग्रह की भूमिका

‘रेखाचित्र’ शब्द चित्रकला से साहित्य में आया है, परन्तु अब वह शब्दचित्र के स्थान में रूढ़ हो गया है।
चित्रकार अपने सामने रखी वस्तु या व्यक्ति का रंगहीन चित्र जब कुछ रेखाओं में इस प्रकार आंक देता है कि उसकी विशेष मुद्रा पहचानी जा सके, तब उसे हम रेखाचित्र की संज्ञा देते हैं। साहित्य में भी साहित्यकार कुछ शब्दों में ऐसा चित्र अंकित कर देता है जो उस व्यक्ति या वस्तु का परिचय दे सके, परन्तु दोनों में अन्तर है।

चित्रकार चाक्षुष प्रत्यक्ष के आलोक में बैठे हुए व्यक्ति का रेखाचित्र आंक सकता है, कभी कहीं देखे हुए व्यक्ति का रेखाचित्र नहीं अंकित हो पाता और दीर्घकाल के उपरान्त अनुमान से भी ऐसे चित्र नहीं आंके जाते। इसके विपरीत साहित्यकार अपना शब्दचित्र दीर्घकाल के अन्तराल के उपरांत भी अंकित कर सकता है। उसने जिसे कभी नहीं देखा हो उसकी आकृति मुखमुद्रा आदि को शब्दों में बांध देना कठिन नहीं होता। शब्द के लिए जो सहज है वह रेखाओं के लिए कठिन है। ‘रेखाचित्र’ वस्तुतः अंग्रेजी के ‘पोट्रेट पेन्टिंग’ के समान है। पर साहित्य में आकर इस शब्द ने बिम्ब और संस्मरण दोनों का कार्य सरल कर दिया है।

मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।

पशु-पक्षियों में सहज चेतना का एक ही स्तर होता है, परन्तु मनुष्य में सहज चेतना, अवचेतना, चेतना तथा पराचेतना आदि कई स्तर हैं। इसी प्रकार उनके मन की भी तीन अवस्थाएं हैं-‘स्थूल मन’ जिससे वह लोक व्यवहार की वस्तुओं को जानता है, ‘सूक्ष्म मन’ से वह वस्तुओं को उनके मूल रूप में जानता है और ‘कारण मन’ जो इन सबमें एक तत्त्व को पहचानता है। लेखक में चेतना के सभी स्तर और मन की सभी अवस्थाएं मिल जाने पर भी कालजयी लिखी जाती है जो जटिल कार्य है। मेरे विचार में अनुभूति के चरम क्षण में जो तीव्रता रहती है उसमें कुछ लिखना सम्भव नहीं रहता, परंतु तीव्रता अवचेतन में जो संस्कार छोड़ जाती है उसी के कारण वह क्षण चेतना में प्रत्यावर्तित हो जाता है और तब हम लिखते हैं।

मेरे रेखाचित्र ऐसे क्षणों के प्रत्यावर्तन में लिखे गए हैं और प्रायः दीर्घकाल के उपरांत भी लिखे गए हैं। एक प्रकार से मैं लिखने के लिए विषय नहीं खोजती हूं, न कविता में न गद्य में। कोई विस्मृत क्षण अचेतन से चेतन में किसी छोटे से कारण से सम्पूर्ण तीव्रता के साथ जाग जाता है तभी लिखती हूँ। दूसरे इन क्षणों का मूल्यांकन कर सकते हैं।

पौष पूर्णिमा
स .वि.2040

महादेवी

रेखाचित्र तथा संस्मरण में अंतर

  • रेखाचित्र तथा संस्मरण एक दूसरे से मिलती-जुलती और आधुनिक विधाएँ हैं। रेखाचित्र में भी  संस्मरण की भाँति बीती हुई घटनाओं का इस तरह वर्णन किया जाता है कि उसका हू-ब-हू चित्र आँखों के आगे अंकित हो जाता है। परंतु जहाँ रेखाचित्र विषय प्रधान होता है वहीं संस्मरण विषयी प्रधान। संस्मरण प्राय: प्रसिद्ध व्यक्ति के विषय में ही लिखा जाता है। रेखाचित्र के लिए यह आवश्यक नहीं है। जहाँ रेखाचित्र के विषय विविध हो सकते हैं, वहीं संस्मरण का विषय कोई विशेष व्यक्ति या विशेष घटना ही होती है।
  • रेखाचित्र में लेखक का वर्णित घटना, व्यक्ति आदि के साथ निजी संबंध होना आवश्यक नहीं है, जबकि संस्मरण में यह आवश्यक है कि लेखक का वर्णित व्यक्ति, घटना आदि के साथ व्यक्तिगत संबंध रहा हो।
  • संस्मरण केवल अतीत का ही हो सकता है। जबकि रेखाचित्र अतीत, वर्तमान और भविष्य का भी हो सकता है।
  • संस्मरण में लेखक उन्हीं तथ्यों का वर्णन करता है जो वास्तव में घटित हो चुके हैं। उसे अपनी कल्पना से कुछ भी जोड़ने की छूट नहीं है। वहीं रेखाचित्र में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं है।
  • रेखाचित्र में लेखक के निजी व्यक्तित्व का कोई महत्व नहीं होता। संस्मरण में लेखक के निजी विचार किसी-न-किसी प्रकार आ ही जाते हैं, क्योंकि उसका संबंध लेखक के जीवन से भी होता है।
  • विस्तार संस्मरण की विशेषता है। प्रसंगों को याद करते समय लेखक उन्हें रुचिकर बनाकर प्रस्तुत करता है और कहानी कहने के लहजे का उपयोग करता है। इससे वर्णन में फैलाव आता है।
  • रेखाचित्र में वर्णन इतना सुगठित और प्रभावपूर्ण होना चाहिए कि उसका चित्र पाठक के सामने उपस्थित हो जाए। ऐसा लगे कि किसी चित्रकार का बनाया हुआ चित्र आँखों के सामने है। शब्दों के द्वारा चित्र अंकित करने के इस गुण को चित्रात्मकता कहते हैं। यह रेखाचित्र की एक बहुत बड़ी विशेषता है। वास्तव में रेखाचित्रकार का काम शब्दों के द्वारा चित्रों की श्रृंखला प्रस्तुत करने का है। रेखाचित्र इन शब्द-चित्रों को किसी विशेष क्रम में उपस्थित करता है। क्रम के इस निर्वाह को श्रृंखलाबद्धता कहते हैं। संस्मरण में भी सटीक और प्रभावपूर्ण वर्णन तथा श्रृंखलाबद्धता आवश्यक है। अपने इस बिंदु पर रेखाचित्र और संस्मरण एक दूसरे के नज़दीक है।
कुछ उदाहरण 

बिंदा : महादेवी वर्मा

    भीत-सी आंखों वाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा- 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी' सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - "ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।"


भक्तिन : महादेवी वर्मा

    छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कानों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिन्तन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कण्ठ से उत्तर देती हैं-- ‘तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो सम्भवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्तीभर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असम्भव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े। सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लाछमिन अर्थात लक्ष्मी।