आधुनिक भारतीय आर्यभाषा के रूप में हिन्दी का विकास
हिन्दी के विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं, जिन्हें तीन कालों में बांटा गया है:
(1) आदिकाल (1000 ई० - 1500 ई०)
इस काल में हिंदी के मुख्यतः तीन रूप यथा अपभ्रंशात्मक, पिंगल तथा डिंगल व अन्य रूप हिन्दवी या पुरानी हिन्दी तथा पुरानी मैथिली आदि मिलते हैं। अपभ्रंशात्मक रूप में सिद्धों, नाथों एवं जैनियों का धार्मिक साहित्य उपलब्ध होता है। डिंगल रूप (अपभ्रंश एवं राजस्थानी का मिश्रण) में चारणों की वीरगाथात्मक रचनाएँ मिलती हैं। जिनमें रासो ग्रन्थ प्रमुख हैं। पिंगल रूप (अपभ्रंश एवं ब्रजभाषा का मिश्रण) भी उसे समय के साहित्य में प्रयुक्त मुख्य रूप है। पुरानी हिंदी या हिंदवी अरबी-फारसी से युक्त रूप है तथा पुरानी मैथिली, मैथिली
का ही रूप है जो विद्यापति की रचनाओं में है।
(2) मध्यकाल (1500 ई० से 1850 ई०)
इस काल में मुख्य रूप से ब्रज एवं अवधी का विकास हुआ।
(क) काव्य भाषा के रूप में अवधी का उदय और विकास:- अवधी का विकास अर्द्धमागधी अपभ्रंश से हुआ है। अवधी के लिए दो अन्य नाम कोशली और वैसवाड़ी भी हैं। अवधी भाषा का प्रयोग सर्वप्रथम हिन्दी में सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं में किया।
मुल्ला दाऊद कृत 'चंदायन' या 'लोरकहा' (रचनाकाल 1379 ई०) सूफी प्रेमाख्यानों तथा अवधी में सबसे पहली रचना हैं।
सूफी कवियों की अवधी में अन्य रचनाएँ इस प्रकार है:-
कवि का नाम रचना का नाम रचनाकाल
मुल्ला दाऊद चंदायन 1379 ई०
ईश्वरदास सत्यवती कथा 1501 ई०
शेख कुतुबन मृगावती 1503 ई०
जायसी पद्मावत 1540 ई०
मंझन मधुमालती 1545 ई०
उसमान चित्रावली 1613 ई०
जलालुद्दीन जमाल पचीसी
शेखनवी ज्ञानदीप 1619 ई०
नूर मुहम्मद अनुराग बांसुरी
कासिमशाह हंसजवाहिर
ख्वाजा अहमद नूरजहाँ
कवि नसीर प्रेम दर्पण
सूफी कवियों के उपरान्त रामभक्त कवियों ने अवधी का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया। इनमें तुलसीदास जी प्रमुख हैं। तुलसीदास जी ने अपना महाकव्य 'रामचरितमानस' (रचनाकाल 1574 ई० या 1631 वि०) भी अवधी में लिखा। इसकी शुरुआत उन्होंने अयोध्या में की और उसे 2 वर्ष 7 माह में समाप्त किया। इसका कुछ अंश विशेषत: 'किष्किन्धाकाण्ड' काशी में रचा गया। इसके अतिरिक्त 'भरत मिलाप' 'अंगद पैज' (ईश्वरदास), राम रासो (माधव दास), रामाष्टयाम, रामध्यान मंजरी (अग्रदास) और हनुमान्नाटक (हृदयराम) आदि प्रमुख हैं।
नोट:- जायसी की अवधी ठेठ ग्रामीण अवधी है, जबकि तुलसीदास की अवधी शुद्ध, साहित्यिक, परिनिष्ठित अवधी है।
आधुनिक काल में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे पं० द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने दोहा- चौपाई शैली में अवधी भाषा में 'कृष्णायन' नामक ग्रन्थ की रचना की जो कृष्णकथा पर आधारित अवधी का आधुनिक महाकाव्य है।
वंशीधर शुक्ल (रमई काका) भी अवधी के आधुनिक काल के प्रमुख कवि हैं।
तुलसी के अतिरिक्त लालदास ने 'अवध विलास' की रचना
1643 ई० में की है, जिसमें राम जन्म से वनगमन की कथा अवधी भाषा में दोहा-चौपाई शैली में की गई है।
(ख) काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का विकास:-
शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश का विकास हुआ तथा शौरसेनी अपभ्रंश से ब्रजभाषा का विकास हुआ है।
मध्यकाल में कृष्णभक्त कवियों ने सर्वप्रथम ब्रजभाषा का प्रयोग किया। अष्टछाप के कवियों - सूरदास (सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी), नन्ददास (भंवरगीत), कुम्भनदास, परमानन्द दास, गोविन्द स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुजदास और कृष्णदास ने अपनी रचनाओं में बृजभाषा का प्रयोग किया। नन्ददास की भाषा उच्च कोटि की है। इसलिए इनके संबंध में यह उक्ति प्रसिद्ध है - और कवि वाढ़िया, नन्ददास जड़िया।
इनके अतिरिक्त रसखान (सुजान रसखान, प्रेम वाटिका), गोस्वामी हित हरिवंश (हित चौरासी), बिहारी (बिहारी सतसई), घनानंद (घनानन्द कवित), केशवदास (रामचंद्रिका), मतिराम, सेवापति ग्वाल, पद्माकर, देव, चिन्तामणि आदि सैकड़ों कवियों ने ब्रजभाषा में अपनी रचनाएँ लिखीं।
तुलसीदास ने भी ब्रजभाषा की लोकप्रियता के कारण 'विनय पत्रिका, 'गीतावली', 'कवितावली' की रचना ब्रजभाषा में की।
आधुनिक काल में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' (उद्धव-शतक) आदि ने भी ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि 'ब्रजबुलि 'बंगला भाषा का एक उपरूप है जिसे भ्रमवश लोग ब्रजभाषा की बोली समझ लेते हैं।
मध्यकाल में बृजभाषा व अवधी के साथ खड़ी बोली पर आधारित दक्खिनी का विकास दक्षिण में हुआ जो 18 वीं शती के आसपास उत्तर भारत में 'उर्दू' के नाम से जानी गई।
(3) आधुनिककाल (1850 ई० से अद्यतन)
इस काल में हिन्दी के कई रूप सामने आए यथा - संस्कृत बहुला हिन्दी, अरबी-फारसी मिश्रित हिन्दी तथा खड़ी बोली। इन सबमें खड़ी बोली विशिष्ट है।
साहित्यिक हिंदी के रूप में खड़ी बोली का उदय एवं विकास:-
खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में आदिकाल में ही
अमीर खुसरों (1255 - 1324 ई.) ने अपना लिया था जिसकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दोसखुन, ढकोसले आदि रचनाएँ जनता में बहुत लोकप्रिय हुई।
खड़ी बोली का विकास 'शौरसेनी अपभ्रंश' से हुआ है।
खड़ी बोली गद्य की सर्वप्रथम उल्लेखनीय रचना अकबर
के दरबारी कवि गंग कृत "चंद छंद बरनन की महिमा" है।
इसका रचनाकाल 1570 ई० है। रामप्रसाद निरंजनी ने "भाषा योग वाशिष्ठ" नामक रचना खड़ी बोली गद्य में लिखी है। मुंशी सदासुखलाल (सुख सागर), ईंशा अल्ला खां (रानी केतकी की कहानी), लल्लूलाल (प्रेमसागर), सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान) ने खड़ी-बोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द (राजाभोज का सपना, मानवधर्म सार, आलसियों का कीड़ा), जिनकी भाषा में उर्दूपन अधिक था, के प्रयत्नों से ही कम्पनी सरकार ने संस्कृत कॉलेजों में हिंदी शिक्षा को स्थान देना स्वीकार किया। राजा लक्ष्मण सिंह, जिनकी हिन्दी संस्कृत बहुला
थी, का भी हिंदी के विकास में उल्लेखनीय योगदान है।
राजा लक्ष्मणसिंह ने कालिदास (अभिज्ञानशाकुंतलम्, मेघदूत) के नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया।
पंजाब के श्रद्धाराम फुल्लौरी (भाग्यवती (उपन्यास), सत्यामृत प्रवाह (धार्मिक पुस्तक)) ने भी संस्कृत का विद्वान होते हुए हिन्दी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। इनकी रची हुई आरती 'ओम जय जगदीश हरे' बहुत प्रचलित हुई।
इनके अतिरिक्त भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय,
सुमित्रानन्दन पंत, निराला आदि सैकड़ों कवियों ने खड़ी बोली को अपनाया।
⇒ मानक हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक विवरण (रूपगत)
(1) शब्द रचना :- हिन्दी में शब्द रचना के चार प्रकार है:- संधि द्वारा, समास द्वारा, उपरार्ग द्वारा, प्रत्यय द्वारा।
(२) लिंग :- हिंदी में केवल दो लिंग (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग) हैं।
(3) वचन :- हिंदी में केवल दो वचन (एकवचन, बहुवचन) हैं।
(4) कारक :- हिंदी में कारक चिह्नों का विकास हुआ।
(5) पुरुषः- हिंदी में संस्कृत की भाँति तीन पुरुष है:- उत्तम, मध्यम और अन्य पुरुष।
(6) काल :- हिंदी में मूलत: तीन काल तथा इनके भाग हैं -
(i) वर्तमान, (ii) भूतकाल, (iii) भविष्यत् काल
'हिंदी' शब्द मूलत: फारसी का है।
